देवीमाहात्म्य Devi Mahatmya

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देवीमाहात्म्य Devi Mahatmya
देवीमाहात्म्य Devi Mahatmya

देवीमाहात्म्य - (देवीमाहात्म्यम् का अर्थ: है - देवी की महानता का बखान) देवीमहात्म्य, जिसे सप्तशती के नाम से भी जाना जाता है, एक पवित्र हिंदू पाठ है जो मार्कण्डेय ऋषि और भगवती दुर्गा के बीच बातचीत के रूप में लिखा गया था। यह एक महाकाव्य रचना है जिसमें 700 छंद हैं और नवरात्रि के त्योहार के दौरान इसका पाठ किया जाता है। इस ग्रंथ में, देवताओं और असुरों के बीच एक भयंकर युद्ध का वर्णन किया गया है, जहाँ भगवान ब्रह्मा, विष्णु, शिव और अन्य हिंदू देवता एकजुट होकर असुरों के खिलाफ लड़ते हैं। अंततः, भगवती दुर्गा अपने दस अवतारों-महिषासुरमर्दिनी, शुंभ-निशुंभमर्दिनी, चण्डमुण्डवधकारिणी, रक्तबीजवर्धिनी, निरम्भवर्धिनी, शताक्षी, दशमुखा, अग्निजिह्वा और सर्वमुखदमनी के माध्यम से दुष्ट शक्ति पर विजय प्राप्त करती हैं। 'देवीमहात्म्य' भक्ति, शक्ति और धर्म के महत्व पर प्रकाश डालता है। यह आध्यात्मिक उत्थान और नकारात्मक शक्तियों पर विजय के लिए एक आदर्श मॉडल भी प्रस्तुत करता है।
देवीमहात्म्यम एक पवित्र हिंदू पाठ है जो मार्कंडेय पुराण से संबंधित है। इसमें 108 अध्याय हैं और इसमें बुरी ताकतों के खिलाफ देवी दुर्गा की दिव्य शक्तियों, उपलब्धियों और जीत का वर्णन किया गया है। कहानी राजा सुमाथा की सर्वोच्च माता देवी दुर्गा के बारे में ज्ञान की खोज और महिषासुर, शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज जैसे राक्षसों को हराने में उनकी भूमिका पर केंद्रित है।

यह पवित्र ग्रंथ हिंदुओं के बीच अत्यधिक महत्व रखता है क्योंकि यह भक्ति, धर्मपरायणता, धार्मिकता और बुराई पर विजय के बारे में मूल्यवान सबक सिखाता है। देवीमहात्म्यम को देवी दुर्गा की पूजा के लिए समर्पित नौ दिवसीय त्यौहार, नवरात्रि के दौरान व्यापक रूप से पढ़ा जाता है, क्योंकि यह अंतर्दृष्टि प्रदान करता है कि वह मानवता को बुरे प्रभावों से कैसे बचाती है।

देवी महात्म्य, जिसे मार्कंडेय पुराण के नाम से भी जाना जाता है, एक हिंदू पाठ है जिसमें देवी दुर्गा को समर्पित 108 अध्याय और 12000 छंद हैं। इस प्राचीन ग्रंथ में देवी दुर्गा के विभिन्न अवतारों के साथ-साथ विभिन्न युगों में राक्षसों और बुरी ताकतों के खिलाफ उनकी लड़ाई का वर्णन किया गया है।

यह बाधाओं, कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने और आंतरिक शांति और ज्ञान प्राप्त करने के लिए देवी दुर्गा के प्रति भक्ति के महत्व पर जोर देता है।

इस पाठ का हिंदुओं के बीच महत्वपूर्ण आध्यात्मिक मूल्य है और इसे नवरात्रि त्योहार के दौरान व्यापक रूप से पूजनीय माना जाता है, जहां देवी दुर्गा से आशीर्वाद मांगने वाले भक्तों द्वारा इसका प्रतिदिन पाठ किया जाता है।

देवी महात्म्य के कुछ उल्लेखनीय खंडों में देवी दुर्गा के जन्म, भगवान शिव के साथ उनके विवाह, राक्षस महिषासुर पर उनकी जीत के पीछे की कहानी और चंडिका, शौंभ, नियाशुंभ आदि राक्षसों के खिलाफ उनकी अन्य लड़ाइयों पर चर्चा करने वाले अध्याय शामिल हैं।

इसके अतिरिक्त, यह पवित्र पुस्तक धार्मिकता, धर्म और कर्म के बारे में पाठ पढ़ाते हुए मानव मनोविज्ञान, सामाजिक संरचनाओं और आध्यात्मिक विकास में अंतर्दृष्टि प्रदान करती है। कुल मिलाकर, देवी महात्म्य हिंदू पौराणिक कथाओं में अत्यधिक महत्व रखता है और पीढ़ियों से लाखों भक्तों के लिए एक मार्गदर्शक शक्ति के रूप में कार्य करता है।

ब्रह्मा द्वारा की गयी देवीस्तुति (संस्कृत श्लोक एवं उनका हिन्दी अनुवाद) - वहुप्रचलित स्तोत्र

त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वष्‌टकारः स्वरात्मिका।
सुधा त्वं अक्षरे नित्ये तृधा मात्रात्मिका स्थिता ॥७३॥
अर्थ - देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा, तुम्हीं वषट्कार (पवित्र आहुति मन्त्र) हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हीं जीवदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार - इन तीन अक्षरों के रूप में तुम्ही स्थित हो ॥७३॥

अर्धमात्रा स्थिता नित्या इया अनुच्चारियाविशेषतः।
त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवी जननी परा ॥७४॥
(पाठान्तर : त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं वेद जननी परा )
अर्थ - तथा इन तीन अक्षरों के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेषरूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्ही हो। तुम्हीं सन्ध्या, तुम्हीं सावित्री (ऋकवेदोक्त पवित्र सावित्री मन्त्र), तुम्हीं समस्त देवीदेवताओं की जननी हो।
(पाठान्तर : तुम्हीं सन्ध्या, तुम्हीं सावित्री, तुम्हीं वेद, तुम्हीं आदि जननी हो) ॥७४॥

त्वयेतद्धार्यते विश्वं त्वयेतत् सृज्यते जगत।
त्वयेतत् पाल्यते देवी त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ॥७५॥
अर्थ - तुम्हीं इस विश्व ब्रह्माण्ड को धारण करती हो, तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती है।
तुम्हीं सबका पालनहार हो, और सदा तुम्ही कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। ॥७५॥

विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने।
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये ॥७६॥
अर्थ - हे जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो और पालनकाल में स्थितिरूपा हो। हे जगन्मयी माँ! तुम कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो।॥७६॥

महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः।
महामोहा च भवती महादेवी महेश्वरी ॥७७॥
अर्थ - तुम्हीं महाविद्या, तुम्हीं महामाया, तुम्हीं महामेधा, तुम्हीं महास्मृति हो तुम्हीं महामोहरूपा, महारूपा तथा महासुरी हो। ॥७७॥

प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्व गुणात्रयविभाविनी।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहारात्रिश्च दारूणा ॥७८॥
अर्थ - तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। ॥७८॥

त्वं श्रीस्तमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च ॥७९॥
अर्थ - तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्री और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। ॥७९॥

खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिनी तथा।
शंखिनी चापिनी वाण भूशून्डी परिघआयूधा ॥८०॥
अर्थ - तुम खड्गधारिणी, घोर शूलधारिणी, तथा गदा और चक्र धारण करने वाली हो। तुम शंख धारण करने वाली, धनुष-वाण धारण करने वाली, तथा परिघ नामक अस्त्र धारण करती हो। ॥८०॥

सौम्या सौम्यतराह्‌शेष, सौम्येभ्यस त्वतिसुन्दरी।
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी ॥८१॥
अर्थ - तुम सौम्य और सौम्यतर हो। इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य और सुन्दर पदार्थ हैं उन सबकी अपेक्षा तुम अधिक सुन्दर हो। पर और अपर - सबसे अलग रहने वाली परमेश्वरी तुम्हीं हो। ॥८१॥

यच्च किंचित् क्वचित् वस्तु सदअसद्वाखिलात्मिके।
तस्य सर्वस्य इया शक्तिः सा त्वं किं स्तुयसे मया ॥८२॥
अर्थ - सर्वस्वरूपे देवि ! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उनकी सबकी जो शक्ति है, वह भी तुम्हीं हो। ऐसी स्थिति में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है?॥८२॥

इया त्वया जगतस्रष्टा जगत् पात्यत्ति इयो जगत्।
सोह्‌पि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुं इहा ईश्वरः॥८३॥
अर्थ -  जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं उन भगवान को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में कौन समर्थ हो सकता है? ॥८३॥

सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवी संस्तुता।
मोहऐतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ ॥८५॥
अर्थ - देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो।
ये जो दो दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इन दोनों को मोह लो। ॥८५॥

प्रवोधं च जगत्स्वामी नियतां अच्युतो लघु।
वोधश्च क्रियतामस्य हन्तुं एतौ महासुरौ ॥८६॥
अर्थ - जगत के स्वामी भगवान विष्णु को शीघ्र जगा दो। तथा इनके भीतर इन दोनों असुरों का वध करने की बुद्धि उत्पन्न कर दो। ॥८६॥


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